कवि वृन्द का जन्म संवत् १७२० के लगभग मथुरा के आसपास हुआ था। आपकी शिक्षा कांशी में हुई थी। बाद में कृष्णगढ़ के महाराज मानसिंह ने इन्हें अपना दरबारी बनाकर सम्मानित किया। वे आजीवन वहीं रहे।
कवि वृन्द की ख्याति विशेष रूप से नीति-काव्य के लिए है। आपकी प्रमुख रचना है – वृन्द सतसई। इसमें सात सौ दोहे हैं। आपकी भाषा सरल-सुबोध है। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग सुन्दर ढंग से हुआ है।
वृन्द के नीति-दोहे
करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान॥
जो पावै अति उच्च पद, ताको पतन निदान।
ज्यौं तपि-तपि मध्यान्ह लौं, अस्तु होतु है भान॥
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जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है, काग निबौरी लेत॥
उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय।
परयो अपावन ठौर में, कंचन तजप न कोय॥
मनभावन के मिलन के, सुख को नहिंन छोर।
बोलि उठै, नचि नचि उठै, मोर सुनत घन घोर॥
सरसुति के भंडार की, बडी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै, बिन खरचे घटि जात॥
निरस बात सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत।
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधिन देत॥
ऊँचे बैठे ना लहैं, गुन बिन बडपन कोइ।
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड न होइ॥
उद्यम कबहुँ न छोडिए, पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये, उनयो देखि पयोद॥
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कुल कपूत जान्यो परै, लखि-सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात॥
मोह महा तम रहत है, जौ लौं ग्यान न होत।
कहा महा-तम रहि सकै, उदित भए उद्योत॥
कछु कहि नीच न छेडिए, भले न वाको संग।
पाथर डारै कीच मैं, उछरि बिगारै अंग॥
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर॥
बुरे लगत सिख के बचन, हिए बिचारो आप।
करुवे भेषज बिन पिये, मिटै न तन को ताप॥
फेर न ह्वैहैं कपट सों, जो कीजै ब्यौपार।
जैसे हांडी काठ की, चढै न दूजी बार॥
नैना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कहि देत॥
अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥
भले बुरे सब एक से, जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परतु है काक पिक, रितु बसंत का माहिं॥
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं, दीपहिं देत बुझाय॥
अति हठ मत कर हठ बढे, बात न करिहै कोय।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय॥