वर्तमान में किले से फ्लाइंग फॉक्स भी शुरू हो गया है। जिसमें पर्यटक एक छोर से दूसरे छोर जा सकते हें और ऊंचाई से शहर का भव्य नजारा देख सकते हैं। 125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थिइतिहास के पन्नों पर राज्य के दूसरे बड़े शहर जोधपुर व इसके किले की स्थापना की कहानी लिखी है, जो बहुत ही अद्भुत और रोचक है।
इससे मेवाड़ के कुछ प्रशासनिक सरदार नाखुश थे। नाखुश सरदारों ने मेवाड़ के राजा महाराणा कुम्भा व उनकी माता सौभाग्य देवी को राव रणमल के खिलाफ भड़का दिया और विक्रम संवत 1495 में षड्यंत्र रच कर गहरी नींद में सो रहे राव की हत्या कर दी। मेवाड़ की सेना ने रावत चूड़ा लाखावत के नेतृत्व में मण्डोर पर आक्रमण कर मारवाड़ रियासत पर कब्जा कर लिया।
वसुन्धरा वीरा री वधु, वीर तीको ही बिन्द।
रण खेती राजपूत री, वीर न भूले बाल।।त ये किला कुतुबमीनार से भी ऊंचा है। कुतुबमीनार की ऊंचाई 73 मीटर है।
वीर राव जोधा साहसी और पराक्रमी थे। मारवाड़ राज्य फिर से हासिल करने के लिए वे पंद्रह सालों तक मेवाड़ की सेना से लड़ते रहे। लगातार संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने अपने भाईयों के अटूट सहयोग से मण्डोर, कोसना व चौकड़ी पर विजय पताका लहराई और मारवाड़ में राठौड़ों का राज्य विक्रम संवत 1510 में फिर से स्थापित किया। मंडोर के किले को शत्रुओं से असुरक्षित जानकर राव जोधा ने मण्डोर से 6 मील दूर दक्षिण में चिडि़यानाथ की टूंक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459 से एक नया दुर्ग बनवाना शुरू किया। इसके बाद से 500 वर्ष तक ये किला मारवाड़ की राजनीतिक व सामरिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा।
इस दुर्ग को राव जोधा ने 13 मई 1459 से बनवाना अरंभ किया। वो इसे मसूरिया का पहाड़ी पर बनवानस चाहते थे। लेकिन वहां पानी की कमी थी। इसलिए उन्होंने पंचेटिया पहाड़ी को दुर्ग निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त माना। राजा जब दुर्ग निर्माण के लिए ये पहाड़ी देखने पहुंचा तो यहां उन्होंने बकरी को बाघ से लड़ते देखा। इस पहाड़ी पर उन दिनों शेरों की कई गुफाएं थीं। ये दृश्य देखकर राव जोधा ने इसी पहाड़ी पर दुर्ग निर्माण के लिए उपयुक्त माना। इस पहाड़ी पर एक झरना बहता था, जिसके पास चिडि़यानाथ नामक योगी रहता था। योगी को बताया गया कि राजा यहां दुर्ग बनाना चाहते हैं, कुटिया हटाएं।
इस दुर्ग के चारों 12 से 17 फुट चौड़ी और 20 से 150 फुट ऊंची दीवार है। किले की चौड़ाई 750 फुट और लम्बाई 1500 फुट रखी गई है। चार सौ फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित ये विशाल दुर्ग कई किलोमीटर दूर से दिखाई देता है। बरसात के बाद आकाश साफ होने पर इस दुर्ग को 100 किलोमीटर दूर स्थित जालोर के दुर्ग से भी देखा जा सकता है। कुण्डली के अनुसार इसका नाम चिंतामणी है लेकिन ये मिहिरगढ़ के नाम से जाना जाता था। मिहिर का अर्थ सूर्य होता है। मिहिरगढ़ बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा।