ये तो सब जानते हैं कि भारत को आज़ादी दिलाने में सबसे बड़ा हाथ आज़ाद हिन्द फ़ौज का था, लेकिन आज़ाद हिन्द फ़ौज के इतिहास के बारे में कम ही लोग जानते हैं। यहां तक कि ज्यादातर लोगों को तो लगता है कि आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना सुभाष चन्द्र बोस ने की थी, लेकिन यह सच्चाई नहीं है। आइए बताते हैं भारत की इस सेना के बारे में जिसके चलते आज हम आज़ाद भारत में सांस ले पा रहे हैं…
आज़ाद हिन्द फ़ौज का इतिहास
दरअसल 1942 में आज़ाद हिन्द फ़ौज कहें या ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का गठन किया गया। 28-30 मार्च, 1942 ई. को टोक्यो (जापान) में रह रहे भारतीय रासबिहारी बोस ने ‘इण्डियन नेशनल आर्मी’ (आज़ाद हिन्द फ़ौज) के गठन पर विचार के लिए एक सम्मेलन बुलाया। कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल के सहयोग से ‘इण्डियन नेशनल आर्मी’ का गठन किया गया।
वैसे तो ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ की स्थापना का विचार सबसे पहले मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकॉक में हुआ।
आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना
आपको बता दें आज़ाद हिन्द फ़ौज की प्रथम डिवीजन का गठन 1 दिसम्बर, 1942 ई. को मोहन सिंह के अधीन हुआ। इसमें लगभग 16,300 सैनिक थे। दरअसल जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया।
इसके आगे बात करें तो आज़ाद हिन्द फ़ौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ हुआ, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में ‘इंडियन लीग’ की स्थापना की, किन्तु जब जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब कठिनाई उत्पन्न हो गई और बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
यहां से सुभाषचन्द्र बोस का नेतृत्व
जुलाई, 1943 ई. में सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे। वहां उन्होंने ‘दिल्ली चलो’ का प्रसिद्ध नारा दिया। 4 जुलाई 1943 ई. को सुभाष चन्द्र बोस ने ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ एवं ‘इंडियन लीग’ की कमान को संभाला। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही सुभाषचन्द्र बोस को ‘नेताजी’ कहते थे। बोस ने अपने सिपाहियों को ‘जय हिन्द’ का नारा दिया। उन्होंने 21 अक्टूबर, 1943 ई. को सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की। सुभाष चन्द्र बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया।
आज़ाद हिन्द फ़ौज के प्रतीक चिह्न
‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ के प्रतीक चिह्न के लिए एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था।
‘क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा’- इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।
जापानी सैनिकों के साथ आज़ाद हिन्द फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुंच गई।
आज़ाद हिन्द फ़ौज की बिग्रेड
जर्मनी, जापान तथा उनके समर्थक देशों द्वारा ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ को मान्यता प्रदान की गई। इसके पश्चात् नेताजी बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। पहली बार सुभाष चन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया। जुलाई, 1944 ई. को सुभाष चन्द्र बोस ने रेडियो पर गांधी जी को संबोधित करते हुए कहा “भारत की स्वाधीनता का आख़िरी युद्ध शुरू हो चुका हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।”
इसके अतिरिक्त फ़ौज की बिग्रेड को नाम भी दिये गए- ‘महात्मा गांधी ब्रिगेड’, ‘अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड’, ‘जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड’ तथा ‘सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड’। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ां थे। सुभाषचन्द्र बोस ने सैनिकों का आहवान करते हुए कहा “तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।”
बोस की मृत्यु
फ़रवरी से जून, 1944 ई. के मध्य आज़ाद हिन्द फ़ौज की चारों ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा, परन्तु दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की सेनाओं के मात खाने के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया।
साथ ही एक हवाई दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की भी 18 अगस्त, 1945 ई. को मृत्यु हो गई। हालांकि हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु अभी भी संदेह के घेरे में है। बोस की मृत्यु का किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। आज इतने वर्षों बाद भी जनमानस उनकी राह देखता है।
लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो
आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िले में नवम्बर, 1945 ई. को राजद्रोह का मुकदमा चलाया। इस मुकदमे के मुख्य अभियुक्त कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ां पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी। लेकिन फिर भी इन तीनों की फांसी को सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, नारे लगाये गये- “लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।” विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।
यद्यपि आज़ाद हिन्द फौज़ के सेनानियों की संख्या के बारे में थोड़े बहुत मतभेद रहे हैं परन्तु ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इस सेना में लगभग चालीस हजार सेनानी थे। इस संख्या का अनुमान ब्रिटिश इंटेलिजेंस में रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने भी किया है।