आचार्य चाणक्य का जन्म आज से लगभग 2400 साल पूर्व हुआ था। वह नालंदा विशवविधालय के महान आचार्य थे। उन्होंने हमें ‘चाणक्य नीति’ जैसा ग्रन्थ दिया जो आज भी उतना ही प्रामाणिक है जितना उस काल में था। चाणक्य नीति एक 17 अध्यायों का ग्रन्थ है। आचार्य चाणक्य ने चाणक्य नीति के अलावा सैकड़ों ऐसे कथन और कह थे जिन्हें की हर इंसान को पढ़ना, समझना और अपने जीवन में अपनाना चाहिए। हमने उनके ऐसे ही 600 कथनों और विचारों का संग्रह यहाँ आप सब के लिए किया है। आशा है आप सभी पाठकों को आचार्य चाणक्य के कोट्स का यह संग्रह जरूर पसंद आएगा।
आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार और कथन :-
1: ऋण, शत्रु और रोग को समाप्त कर देना चाहिए।
2: वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।
3: शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
4: सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
5: एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
6: आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
7: मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।
8: जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।
9: संकट में बुद्धि ही काम आती है।
10: लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
11: यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
12: यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
13: सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।
14: एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है। अर्थात एक विपरीत स्वाभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते है।
15: कल के मोर से आज का कबूतर भला। अर्थात संतोष सब बड़ा धन है।
16: आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है। अर्थात दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, वह सदा दुःख ही देता है।
17: अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
18: भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
19: विद्या ही निर्धन का धन है।
20: विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।
21: शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।
22: अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
23: सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
24: किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करें।
25: आलसी का न वर्तमान होता है, न भविष्य।
26: सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
27: ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है। अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।
28: सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।
29: समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।
30: जो जिस कार्ये में कुशल हो उसे उसी कार्ये में लगना चाहिए।
31: दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।
32: किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें।
33: चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।
34: पहले निश्चय करिएँ, फिर कार्य आरम्भ करें।
35: भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।
36: अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है।
37: शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।
38: कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
39: व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
40: शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे।
41: अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।
42: मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।
43: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
44: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
45: अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।
46: जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
47: स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
48: धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
49: कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली। अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।
50: दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
चाणक्य (Chanakya)
51: आग में आग नहीं डालनी चाहिए। अर्थात क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।
52: मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है।
53: दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।
54: दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती। अर्थात आवश्कयता के अनुसार साधन जुटाने चाहिए।
55: कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।
56: कल का कार्य आज ही कर ले।
57: सुख का आधार धर्म है।
58: धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है।
59: अर्थ का आधार राज्य है।
60: राज्य का आधार अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना है।
61: प्रकृति (सहज) रूप से प्रजा के संपन्न होने से नेताविहीन राज्य भी संचालित होता रहता है।
62: वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है।
63: वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
64: ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
65: आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
66: जहां लक्ष्मी (धन) का निवास होता है, वहां सहज ही सुख-सम्पदा आ जुड़ती है।
67: इन्द्रियों पर विजय का आधार विनर्मता है।
68: प्रकर्ति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
69: शासक को स्वयं योगय बनकर योगय प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
70: योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
71: एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
72: सुख और दुःख में सामान रूप से सहायक होना चाहिए।
73: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों कोसम्मुख रखकर दुबारा उन पर विचार करे।
74: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
75: शासक को स्वयं योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
76: सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
77: स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दोबारा उन पर विचार करे।
78: अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी अपनी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
79: ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाए।
80: समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहिए।
81: विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है।
82: लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
83: सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए।
84: मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।
85: मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है।
86: भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
87: मंत्रणा के समय कर्त्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
88: मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
89: राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
90: कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए।
91: छः कानो में पड़ने से (तीसरे व्यक्ति को पता पड़ने से) मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
92: अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है।
93: आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
94: आलसी राजा प्राप्त वास्तु की रक्षा करने में असमर्थ होता है।
95: आलसी राजा अपने विवेक की रक्षा नहीं कर सकता।
96: आलसी राजा की प्रशंसा उसके सेवक भी नहीं करते।
97: शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।
98: राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते है।
99: राज्यतंत्र से संबंधित घरेलु और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है।
100: राज्य नीति का संबंध केवल अपने राज्य को सम्रद्धि प्रदान करने वाले मामलो से होता है।
चाणक्य (Chanakya)
101: निर्बल राजा को तत्काल संधि करनी चाहिए।
102: पडोसी राज्यों से सन्धियां तथा पारस्परिक व्यवहार का आदान-प्रदान और संबंध विच्छेद आदि का निर्वाह मंत्रिमंडल करता है।
103: राज्य को नीतिशास्त्र के अनुसार चलना चाहिए।
104: निकट के राज्य स्वभाव से शत्रु हो जाते है।
105: किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही शत्रु मित्र बनता है।
106: आवाप अर्थात दूसरे राष्ट्र से संबंध नीति का परिपालन मंत्रिमंडल का कार्य है।
107: दुर्बल के साथ संधि न करे।
108: ठंडा लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।
109: संधि करने वालो में तेज़ ही संधि का हेतु होता है।
110: शत्रु के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए।
111: बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है।
112: कच्चा पात्र कच्चे पात्र से टकराकर टूट जाता है।
113: संधि और एकता होने पर भी सतर्क रहे।
114: शत्रुओं से अपने राज्य की पूर्ण रक्षा करें।
115: शक्तिहीन को बलवान का आश्रय लेना चाहिए।
116: दुर्बल के आश्रय से दुःख ही होता है।
117: अग्नि के समान तेजस्वी जानकर ही किसी का सहारा लेना चाहिए।
118: राजा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए।
119: व्यक्ति को उट-पटांग अथवा गवार वेशभूषा धारण नहीं करनी चाहिए।
120: देवता के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
121: ईर्ष्या करने वाले दो समान व्यक्तियों में विरोध पैदा कर देना चाहिए।
122: चतुरंगणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ और पैदल) होने पर भी इन्द्रियों के वश में रहने वाला राजा नष्ट हो जाता है।
123: जुए में लिप्त रहने वाले के कार्य पूरे नहीं होते है।
124: शिकारपरस्त राजा धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट कर लेता है।
125: शराबी व्यक्ति का कोई कार्य पूरा नहीं होता है।
126: कामी पुरुष कोई कार्य नहीं कर सकता।
127: पूर्वाग्रह से ग्रसित दंड देना लोकनिंदा का कारण बनता है।
128: धन का लालची श्रीविहीन हो जाता है।
129: दण्डनीति के उचित प्रयोग से ही प्रजा की रक्षा संभव है।
130: दंड से सम्पदा का आयोजन होता है।
131: दण्डनीति के प्रभावी न होने से मंत्रीगण भी बेलगाम होकर अप्रभावी हो जाते है।
132: दंड का भय न होने से लोग अकार्य करने लगते है।
133: दण्डनीति से आत्मरक्षा की जा सकती है।
134: आत्मरक्षा से सबकी रक्षा होती है।
135: आत्मसम्मान के हनन से विकास का विनाश हो जाता है।
136: निर्बल राजा की आज्ञा की भी अवहेलना कदापि नहीं करनी चाहिए।
137: अग्नि में दुर्बलता नहीं होती।
138: दंड का निर्धारण विवेकसम्मत होना चाहिए।
139: दंडनीति से राजा की प्रवति अर्थात स्वभाव का पता चलता है।
140: स्वभाव का मूल अर्थ लाभ होता है।
141: अर्थ कार्य का आधार है।
142: धन होने पर अल्प प्रयत्न करने से कार्य पूर्ण हो जाते है।
143: उपाय से सभी कार्य पूर्ण हो जाते है। कोई कार्य कठिन नहीं रहता।
144: बिना उपाय के किए गए कार्य प्रयत्न करने पर भी बचाए नहीं जा सकते, नष्ट हो जाते है।
145: कार्य करने वाले के लिए उपाय सहायक होता है।
146: कार्य का स्वरुप निर्धारित हो जाने के बाद वह कार्य लक्ष्य बन जाता है।
147: अस्थिर मन वाले की सोच स्थिर नहीं रहती।
148: कार्य के मध्य में अति विलम्ब और आलस्य उचित नहीं है।
149: कार्य-सिद्धि के लिए हस्त-कौशल का उपयोग करना चाहिए।
150: भाग्य के विपरीत होने पर अच्छा कर्म भी दुखदायी हो जाता है।